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लेखनी प्रतियोगिता -18-Aug-2022

एक परिंदा...


बेहिसाब थी मेरी हजारों ख्वाहिशे,
सलाखों ने तोड़ दी है सारी।

कभी उड़ जाया करता था इस नीले गगन में,
आज परों को कतार दिए है सारे।

नही थी कोई हदें मेरे हौसलों के आगे,
आज नजर जाती है जहां तक सामने सरहदें है सारी।

उम्मीदों का आशियां था सारा आसमां,
आज सलाखों में कैद है इरादे मेरे।

बेफिक्र रहना सीख ही रहा था इस ज़माने से,
आज जिम्मेदारियों की बेड़ियां मौजूद है पैरों में मेरे।

ऊंचा इतना उड़ा की खुद की परछाई भी न देखी थी,
अब साथ जीना सीख रहा हुं अजनबी सायों से।

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15 Comments

Shnaya

23-Aug-2022 04:17 PM

बहुत खूब

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Mithi . S

20-Aug-2022 03:19 PM

Very nice

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Punam verma

20-Aug-2022 09:24 AM

Very nice

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